Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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गजाधरप्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अशर्फियों की थैली लिए बैठा हो। सुमन का वह मुख-कमल, जिस पर वह कभी भौंरे की भांति मंडराया करता था, अब उसकी आँखों में जलती हुई आग के समान था। वह उससे दूर-दूर रहता। उसे भय था कि वह मुझे जला न दे। स्त्रियों का सौंदर्य उनका पति-प्रेम है। इसके बिना उनकी सुंदरता इन्द्रायण का फल है, विषमय और दग्ध करने वाला।

गजाधर ने सुमन को सुख से रखने के लिए, अपने से जो कुछ हो सकता था, सब करके देख लिया और अपनी स्त्री के लिए आकाश के तारे तोड़ लाना उसके सामर्थ्य से बाहर था।

इन दिनों उसे सबसे बड़ी चिंता अपना घर बदलने की थी। इस घर में आंगन नहीं था, इसलिए जब कभी सुमन से कहता कि चिक के पास खड़ी मत हुआ करो, तो चट उत्तर देती, क्या इसी काल-कोठरी में पड़े-पड़े मर जाएं? घर में आंगन होगा, तब तो वह बहाना न कर सकेगी। इसके अतिरिक्त वह यह भी चाहता था कि सुमन का इन स्त्रियों से साथ छूट जाए। उसे यह निश्चय हो गया था कि उन्हीं की कुसंगति से सुमन का यह हाल हो गया है। वह दूसरे मकान की खोज में चारों ओर जाता, पर किराया सुनते ही निराश होकर लौट आता।

एक दिन वह सेठजी के यहां से आठ बजे रात को लौटा, तो क्या देखता है कि भोलीबाई उसकी चारपाई पर बैठी सुमन से हंस-हंसकर बात कर रही है। क्रोध के मारे गजाधर के होंठ फड़कने लगे। भोली ने उसे देखा तो जल्दी से बाहर निकल गई और बोली– अगर मुझे मालूम होता कि आप सेठजी के यहां नौकर हैं, तो अब तक कभी की आपकी तरक्की हो जाती। यह बहूजी से मालूम हुआ। सेठजी मेरे ऊपर बड़ी निगाह रखते हैं।

इन शब्दों ने गजाधर के घाव पर नमक छिड़क दिया। यह मुझे इतना नीच समझती है कि मैं इसकी सिफारिश से अपनी तरक्की कराऊंगा। ऐसी तरक्की पर लात मारता हूं। उसने भोली को कुछ जवाब न दिया।

सुमन ने उसके तेवर देखे, तो समझ गई कि आग भड़का ही चाहती है, पर वह उसके लिए तैयार बैठी हुई थी। गजाधर ने भी अपने क्रोध को छिपाया नहीं। चारपाई पर बैठते हुए बोला– तुमने फिर भोली से नाता जोड़ा? मैंने उस दिन मना नहीं किया था?

सुमन ने सावधान होकर उत्तर दिया– उसमें कोई छूत तो नहीं लगी है। शील स्वभाव में वह किसी से घटकर नहीं, मान-मर्यादा में किसी से कम नहीं, फिर उससे बातचीत करने में मेरी क्या हेठी हुई जाती है? वह चाहे तो हम जैसों को नौकर रख ले।

गजाधर– फिर तुमने वही बेसिर-पैर की बातें कीं। मान-मर्यादा धन से नहीं होती।

सुमन– पर धर्म से तो होती है?

गजाधर– तो वह बड़ी धर्मात्मा है?

सुमन– यह भगवान् जाने, पर धर्मात्मा लोग उसका आदर करते हैं। अभी राम-नवमी के उत्सव में मैंने उसे बड़े-बड़े पंडितों और महात्माओं की मंडली में गाते देखा। कोई उससे घृणा नहीं करता था। सब उसका मुंह देख रहे थे। लोग उसका आदर-सत्कार ही नहीं करते थे, बल्कि उससे बातचीत करने में अपना अहोभाग्य समझते थे। मन में वह उससे घृणा करते थे या नहीं, यह ईश्वर जाने, पर देखने में तो उस समय भोली-ही-भोली दिखाई देती थी। संसार तो व्यवहारों को ही देखता है, मन की बात कौन किसकी जानता है?

गजाधर– तो तुमने उन लोगों के बड़े-बड़े तिलक छापे देखकर ही उन्हें धर्मात्मा समझ लिया? आजकल धर्म तो धूर्तों का अड्डा बना हुआ है। इस निर्मल सागर में एक-से-एक मगरमच्छ पड़े हुए हैं। भोले-भाले भक्तों को निगल जाना उनका काम है। लंबी-लंबी जटाएं, लंबे-लंबे तिलक छापे और लंबी-लंबी दाढ़ियां देखकर लोग धोखे में आ जाते हैं, पर वह सब के सब महापाखंडी, धर्म के उज्जवल नाम को कलंकित करने वाले, धर्म के नाम पर टका कमानेवाले, भोग-विलास करने वाले पापी हैं। भोली का आदर-सम्मान उनके यहां न होगा, तो किसके यहां होगा?

सुमन ने सरल भाव से पूछा– फुसला रहे हो या सच कह रहे हो?

गजाधर ने उसकी ओर करुण दृष्टि से देखकर कहा– नहीं सुमन, वास्तव में यही बात है। हमारे देश में सज्जन मनुष्य बहुत कम हैं, पर अभी देश उनसे खाली नहीं है। वह दयावान होते हैं, सदाचारी होते हैं, सदा परोपकार में तत्पर रहते हैं। भोली यदि अप्सरा बनकर आवे, तो वह उसकी ओर आंख उठाकर भी न देखेंगे।

सुमन चुप हो गई। वह गजाधर की बातों पर विचार कर रही थी।

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